Friday, February 26, 2010

और फिर प्राण को दादा साहेब एवार्ड नहीं मिला....


इस 12 फरवरी को प्राण साहब 90 के हो गए.उनके जन्मदिन से पहले दादा साहेब पुरस्कारों की घोषणा हुई.लेकिन सिनेमा में अविस्मरणीय योगदान दिये जाने वाले दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए उन्हें इस बार भी योग्य नहीं समझा गया. जिस कलाकार ने अपने जीवन के करीब 70 साल इस इंडस्ट्री को दे दिए. उस इंडस्ट्री ने उनके 70 साल के योगदान को आज तक नहीं नवाज़ने की ज़रूरत नहीं समझी. याद रखने वाली बात ये है कि उनकी उम्र 90 बरस की है. यानी ज़िदगी में शुरूआत के केवल 20 साल -जब वे बड़े हो रहे थे- को छोड़ दिया जाए तो उनका पूरा जीवन फिल्मी इंडस्ट्री को समर्पित रहा है.

चालीस साल हो गए। प्राण को फिल्मों में खलनायकी छोड़े। पर आज भी भारतीय सिनेमा में खलनायक का ज़िक्र आता है तो ज़ेहन में जो पहला नाम आता है। वो प्राण का ही है। ये उनके अभिनय का जादू नहीं तो और क्या है. किरदार चाहे जैसा भी हो। संवाद अदायगी का खास अंदाज़, होंठों पर तैरने वाली कुटिल मुस्कान और अलग-अलग गेटअप के साथ प्राण ने उसे कुछ इस तरह पेश किया कि किरदार जीवंत और यादगार हो गया। हिंदी फिल्मों में खलयानकी के ज़रिए प्राण ने अभिनय को एक नई ऊंचाई बख़्शी। प्राण ने फिल्मी दुनिया में उस वक्त कदम रखा जब भारतीय सिनेमा अपनी पहचान बना रही थी।

1940 वो साल जब प्राण का सिनेमाई सफर शुरू हुआ.शुरूआत की पंजाबी फिल्मों से. यमला जट नाम की पंजाबी फिल्म में उन्होंने खलनायक की भूमिका अदा की थी. उस वक्त वे लाहौर में रहकर काम करते थे. इसके दो साल के बाद सिल्वर स्क्रीन पर वो नायक बनकर उतरे। फिल्म थी खानदान। इस फिल्म में उनके अपोज़िट थी नूरजहां। तब नूरजहां की उम्र महज़ 13-14 साल ही थी. फिल्म हिट रही. इसके बाद उनके पीछे निर्माताओं की लाइन लग गई. उन्हें फिल्मों में नायक की भूमिकाएं मिलने लगी पर नायक की भूमिकाएं उनको ज्यादा रास नहीं आ रही थी। इसकी वजह थी नायक के पास अभिनेता के तौर पर करने के लिए ज्यादा कुछ होता नहीं था। सिर्फ हिरोईन के साथ पेड़ के इर्द गिर्द चक्कर लगाने और नाच-गाने के अलावा। लिहाज़ा उन्होंने फिर से खलनायकी शुरू की. उनका करियर धूम-धड़ाके के साथ आगे बढ़ ही रहा था कि देश को विभाजन की त्रासदी झेलनी पड़ी और वो लाहौर से मुंबई आ गए. छै महीने तक मुफलिसी और संघर्ष के दौर के बाद प्राण को काम मिला देवानंद और कामिनी कौशल की फिल्म ज़िद्दी में. उनका शानदार अभिनय देखकर हिंदी फिल्मों के निर्देशक दंग रह गए. इसके बाद तो उनके पीछे निर्माता-निर्देशकों की लाइन लग गई.
पचास और साठ के दशक के आते-आते प्राण हिंदी फिल्मों में खलनायकी के पर्याय बन चुके थे. उनका निभाया हर किरदार लोगों के दिलों में खौफ बनकर बैठ जाता था. किरदार की जीवतंता ऐसी कि असल ज़िंदगी में भी लोग प्राण से डरते थे. वे जहां भी जाते, लोग उनसे कन्नी काट लेते थे. एक बार उन्हें दिल्ली में अपने किसी दोस्त के घर चाय के लिए बुलाए गए। जब वे उस दोस्त के घर पहुंचे तो उसकी बहन उन्हें देखते ही वहां से खिसक ली। बाद में उनके मित्र ने फोन पर उन्हें बताया कि उसकी बहन उससे लड़ रही थी कि वह इतने बुरे आदमी को घर में क्यों लेकर आए. पचास के दशक के बाद आलम ये था कि लोगों ने अपने बच्चों के नाम प्राण रखना बंद कर दिया.
उस दौर में देवानंद की शोहरत का मुकाबला सिर्फ प्राण ही कर सकते थे. फर्क सिर्फ इतना है ये शोहरत देवानंद को प्यार के रूप में मिली तो प्राण को नफरत के रूप में. कहा जाता है कि देवानंद जहां भी जाते थे लड़कियां उन्हें घेर लेती थी और उनकी एक झलक पाने के लिए छत से भी कुदने को तैयार रहती थीं. ठीक उसी तरह प्राण जहां जाते थे लोग रास्ता बदल लेते थे या दांये-बाएं होकर खिसक लेते थे. गौरतलब बात है कि देवानंद को यह लोकप्रियता सिर्फ अभिनय के बूते नहीं बल्कि अपनी खूबसूरती और खास अंदाज़ की बदौलत भी मिली. जबकि प्राण ने ये लोकप्रियता सिर्फ अपने अभिनय के दम पर हासिल किया. प्राण की ये नकारात्मक लोकप्रियता विश्व सिनेमा के इतिहास में अद्वितीय है. यह भारत ही नहीं दुनिया के सिनेमा के इतिहास में बदनामी से मिली शोहरत की ऐसी मिसाल थी जिसे कोई भी कलाकार नहीं दोहरा पाया.
प्राण की इस कामयाबी के पीछे था अभिनय के प्रति उनका जबरदस्त समर्पण और लगाव . ये समर्पण इतना गहरा था पंजाबी फिल्मों में नायक के तौर पर स्थापित होने के बाद भी चैलेंजिंग रोल की खातिर उन्होंने खलनायकी का रूख किया. गौरतलब है कि हिंदी फिल्मों में ऐसा करने का साहस नायकों में उनके साठ साल के बाद आया(21 सदी में ही हिंदी फिल्मों के नायकों ने पूरी तरह से खलनायक बनने का जोखिम उठाया).
प्राण उन कलाकारों में शुमार किए जाते हैं जो चरित्र पर कैमरे से ज्यादा कैमरे पर आने से पहले मेहनत पर यकीन करता थे. पात्र के मुताबिक संवाद, वेशभूषा, गेटअप और उसे नया रंग देने के लिए वह बकायदा कई-कई दिनों तक सिर्फ अध्ययन करते थे और उसी के मुताबिक अपना मैनरिज्म विकसित करते थे. हर चरित्र के हिसाब से खुद को ढालना प्राण की खास पहचान रही है. हर बार उनका गेट अप और बोलने का अंदाज अलग होता था.
खास गेटअप के लिए वे अखबारों से तस्वीरें काटकर रख लिया करते थे. बाद में कोई पात्र उन्हें निभाना होता था तो वे पात्र के मुताबिक फोटो निकालते थे और फोटो देखकर कभी उसकी हेयरस्टाइल , मूंछें, या वेशभूषा को एडॉप्ट करते थे. यही वजह है कि हर फिल्म में उनका अलग मैनरिज़्म होता था, अलग संवाद अदायगी होती थी. फिल्मों में उनके द्वारा अपनाए गए स्टाइल भी खासे लोकप्रिय होते थे. ये उनके अभिनय का तिलस्म ही था कि खलनायक होने के बाद भी दशर्कों ने उनके स्टाइल को अपनाया. उनकी हेयर स्टाइल,सिगरेट पीने का अंदाज़, चलने बोलने का तरीका खूब लोकप्रिय हुआ. प्राण शायद पहले खलनायक थे जिनकी क्रूरता और घटियापन में भी एक किस्म का आकर्षण रहता था.
खलनायक के तौर पर अपने झंडे गाड़ने के बाद उन्होंने एक बार अपनी रची खलनायक की इमेज तोड़ दी. इस बार उन्होंने ये काम मनोज कुमार की फिल्म उपकार के ज़रिए किया. एक फिल्म से ही हिंदी फिल्मों का ये सबसे बड़ा खलनायक से मलंग चाचा बन गया. इसके बाद उन्होंने कई यादगार चरित्र भूमिकाएं निभाईं. सत्तर के दशक के बाद प्राण की अमिताभ के साथ जोड़ी काफी हिट रही थी. वे कभी अमिताभ के दोस्त बनते तो कभी पिता. स्क्रीन पर जब भी इन दो महान हस्तियों का आमना-सामना हुआ वो सीन यादगार बन गया. चाहे वो ज़जीर हो या फिर शराबी. इस दौर में वे फिल्मों में चरित्र भूमिकाओं के लिए ऐसी ज़रूरत बन गए कि निर्माता-निर्देशक उनको मन मुताबिक पैसे देते थे. फिल्म डॉन के लिए निर्माता ने जितने पैसे अमिताभ को डबल रोल के लिए दिए थे उससे ज्यादा पैसे उन्हें प्राण को देने पड़े थे
अगर अभिनय सिनेमा के विकास में योगदान देती है तो उनका अभिनय हिंदी सिनेमा के लिए बड़ा योगदान था। जिन लोगों ने सिनेमा के विकास में बड़ा भारतीय सिनेमा के विकास के योगदान में प्राण अपना अमूल्य योगदान दिया। लेकिन हैरानी की बात है कि आज तक इस महान कलाकार को भारतीय सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिए जाने वाले सबसे बड़े सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से महरूम रखा गया
दादा साहेब फाल्के अवार्ड हिंदी सिनेमा में अविस्मरणीय योगदान के लिए दिया जाता है. लेकिन लगता है ये मापदंड सिर्फ कहने के लिए है. सरकार को जो पसंद आता है पुरस्कार उसे ही दिया जाता है. और अब तक प्राण को ये सम्मान न मिलना इस बात का प्रमाण है.
सवाल उठता है कि आखिर प्राण को यह पुरस्कार क्यों नहीं मिल रहा. क्या इसकी वजह खलनायकी को लेकर इस देश के लोगों का दुराग्रह है. लेकिन यह पुरस्कार तो चयन समिति और केंद्र की सरकार करती है. तो क्या वे लोग भी इसी दुराग्रह से ग्रसित हैं। अगर ऐसा है तो यह बड़ी हैरानी की बात है क्योंकि इस पुरस्कार का चुनाव जो समिति करती है उसमें सिनेमा जगत के दिग्गज लोग शामिल होते हैं. इन लोगों से उच्च कोटि की सिनेमाई समझ की अपेक्षा की जाती है. कम से कम इतनी तो ज़रूर कि कलाकार कलाकार होता है. चाहे वो नायक हो या खलनायक.
प्राण के अलावा कोई दूसरा कलाकार नहीं है जो इतने सालों तक सक्रिय है और जिसे अब तक ये सम्मान नहीं मिला है. इस दौरान उन्होंने साढ़े तीन सौ से ज्यादा फिल्मों में यादगार अभिनय किया. प्राण भारतीय सिनेमा के हर उतार-चढ़ाव के वे भागीदार रहे. इतनी सारी फिल्मों में अभिनय करना अपने-आप में एक उपब्धि है. वो सिनेमा के हर दौर में उन्होंने अपने अभिनय से मौजूदगी दर्शाई है. वे सिनेमा के हर-उतार चढ़ाव का हिस्सा रहे हैं.
हम आज कहते हैं कि महात्मा गांधी को नोबल पुरस्कार न मिलना महात्मा गांधी का नहीं नोबल पुरस्कार की बदकिस्मती है. कहीं हीं ऐसा न हो कि आने वाले दिनों में हमें यही बात प्राण और दादा साहेब फाल्के एवार्ड के लिए कहना पड़े.
ऐसा कौन सा अभिनेता है जिसने अभिनय को छबि से ज्यादा प्राथमिकता दी हो. अमिताभ आज कहते हैं कि वे अब बूढे़ हो गए हैं तो तरह तरह की भूमिकाएं निभा सकते हैं. उस दौर में नहीं क्योंकि एक हीरो के लिए चेहरा अहम होता था. जिस काम को करने का साहस हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के सर्वकालिन लोकप्रिय अभिनेता नहीं कर सके उसे करने का साहस प्राण साहब ने उनसे 50 साल पहले ही कर लिया.